अतिथि

What could she be asking for in her prayer ?

 

This picture with the caption, was posted today in one of my Whatsapp group. I found it poignant, and  it set off a train of thoughts.There was a lot she could have asked for, but she chose to tell instead !


चमकती धूप में,
कभी पत्थर तोड़ती हूँ,
कभी ईटें ढोती हूँ।
छूटा गांव,
लड़खड़ाते पांव
सूख के हो गए लकड़ी,
और हाड़ को जकड़ी चमड़ी।
जहाँ ज़रा पकड़ छूटी,
तो चरमरा कर झुर्रियों
का ढेर बन गई।
हाथों के छालों की गढ़ाई,
डिज़ाईनर मेंहदी भी शर्मायी।
शरीर पर पड़ी गाठें,
और चिपक के एक हो गईं आंतें।
मेरी नींद है इतनी गाढ़ी,
कि सपनों का आना भी भारी।
तपता ,सिलता ,मेरा बिस्तर,
ओढ़ना मेरा विस्तृत अम्बर।

मालिक से नज़रें बचा कर,
कुछ डरे और कुछ सकुचा कर,
धरती का एक छोटा टुकड़ा,
मैं चुरा ले आयी हूँ।
रिक्शा वाले पड़ोसी से,
कुछ आसमान मांग लायी हूँ।
तुम्हारा आना जो तय है,
मेरे मन में भी भय है,
अतिथि हो, तुम कुछ दिन मेरे,
कष्ट तुम्हें न कोई घेरे,
काम बहुत ही आम किया है,
भगवन!
मैंने तुम्हारा इंतेज़ाम किया है!!