कुछ खास नहीं, बस आम सी बातें,आम से जीवन की, जो मन से फिसल कर निकली हैं...
सरपट दौड़ती ज़िंदगी के,
छालों भरे पांव से लिपट गयी मैं,
रुको !दो घड़ी,
कुछ सांस ले लें,
हम भी, तुम भी,
कुछ गुफ्तगू कर लें,
हम भी,तुम भी
आगे भी क्या बेदम दौड़ना है?
या फिर समय की गति को तोड़ना है?
हांकती गयी तुम,
और मैं भी दौड़ी बदहवास,
सोचा कम और भागी ज़्यादा,
कभी ठिठकी, तो ठेल दिया,
कभी मुड़ी, तो धकेल दिया,
कभी दोराहों पर भटकाया,
कभी पतली गली में पटकाया,
कभी मकां छुटा, कभी साथी,
कभी दीया गिरा ,कभी सरकी बाती,
भीड़ बहुत थी,
क्या दूल्हा! क्या बाराती!
मुखौटे सभी सजे हुए,
खिलाड़ी सारे मंजे हुए,
मुस्कान थी ,या नश्तर की धार?
नृत्य या धोबी पछाड़?
अजीब अंदाज़ था टोकने का,
हरी झंडी की आड़ में रोकने का,
भलाई और भरोसा कब का राह छोड़ गए,
सच्चाई और शर्म कब का मुँह मोड़ गए,
अब सांझ के झुटपुटे में थोड़ी रोशनी उधार लें,
अपनी झुर्रियों के साये में बैठ पांव पसार लें,
गिले शिकवे सब बिसार लें,
मेरी आंखों में मोती,
तुम्हारे बालों में चांदी,
अपनी अमीरी के साथ ,
आहिस्ता चलते हैं!
हम भी ,तुम भी,
हाथों में हाथ डाले,
जब तक हाथ छूट न जाये!!