कुछ मित्रों की फरमाइश थी ,कि मैं हिंदी में भी कुछ लिखूं।
तो ये कोई कविता नहीं, बल्कि एक कोशिश...आपबीती कह लीजिए !☺️
लेखन के क्षेत्र में नए होने की वजह से जो अनुभव किया है या जो और रुकावटें आई हैं, बस उन्ही को बयां कर रही हूँ।
लेखन के क्षेत्र में नए होने की वजह से जो अनुभव किया है या जो और रुकावटें आई हैं, बस उन्ही को बयां कर रही हूँ।
मैं जब अकेली होती हूँ,
मन के किसी कोने से निकल आते हैं,
दबे पांव...शब्द!
कुछ छोटे,कुछ बड़े,
कुछ सीधे, कुछ पड़े,
कुछ नए,कुछ पुराने,
कुछ जाने,कुछ अनजाने,
कुछ शराफत से पंक्ति में बैठ जाते हैं,
कुछ शरारत से इधर उधर भागते हैं,
पकड़ती हूँ,पर फिसल जाते हैं,
कुछ मुँह चिढ़ा कर निकल जाते हैं,
ढूढ़ती हूँ ,पुचकारती हूँ,
कभी उनके पर्याय से काम चलाती हूँ,
कुछ इतराते हैं खास जगह बनाने को,
मचलते हैं पन्नों पर सजाने को,
कभी फूलों की रंगत पाने को,
कभी पक्षी बन चहचहाने को,
कभी अक्षर अक्षर बिखरे रहते,
अटपटे से पसरे रहते,
कभी आपस में गलबहियां डाल,
गीत बन के निखरे रहते,
कभी भावनाओं से बुहारती हूँ,
कभी आंसूओं से पखारती हूँ,
कभी इतना कोलाहल करते हैं,
कि चुप कराना मुश्किल,
कभी ऐसे चुप,
कि बोलवाना मुश्किल।
ये मेरे दोस्त हैं, मेरे हमनवा,
जो आते हैं, कहीं मन के कोने से,
जब मैं अकेली होती हूँ।
मन के किसी कोने से निकल आते हैं,
दबे पांव...शब्द!
कुछ छोटे,कुछ बड़े,
कुछ सीधे, कुछ पड़े,
कुछ नए,कुछ पुराने,
कुछ जाने,कुछ अनजाने,
कुछ शराफत से पंक्ति में बैठ जाते हैं,
कुछ शरारत से इधर उधर भागते हैं,
पकड़ती हूँ,पर फिसल जाते हैं,
कुछ मुँह चिढ़ा कर निकल जाते हैं,
ढूढ़ती हूँ ,पुचकारती हूँ,
कभी उनके पर्याय से काम चलाती हूँ,
कुछ इतराते हैं खास जगह बनाने को,
मचलते हैं पन्नों पर सजाने को,
कभी फूलों की रंगत पाने को,
कभी पक्षी बन चहचहाने को,
कभी अक्षर अक्षर बिखरे रहते,
अटपटे से पसरे रहते,
कभी आपस में गलबहियां डाल,
गीत बन के निखरे रहते,
कभी भावनाओं से बुहारती हूँ,
कभी आंसूओं से पखारती हूँ,
कभी इतना कोलाहल करते हैं,
कि चुप कराना मुश्किल,
कभी ऐसे चुप,
कि बोलवाना मुश्किल।
ये मेरे दोस्त हैं, मेरे हमनवा,
जो आते हैं, कहीं मन के कोने से,
जब मैं अकेली होती हूँ।