The River

  I have travelled from Patna to Bhagalpur as a child by train quite often. Steam engines were still a part of the scene then.The highlights of those trips  were two...one ,crossing the railway bridge on Kiul river, a tributary of the Ganga and the other was a long railway tunnel close to Jamalpur.
I made that journey to my nanihal in Bhagalpur, once again recently after a gap of probably 40 long years.
The sight which brought on awe and excitement, was tinged with disappointment.





The shrivelled brown earth,
Wrinkled into furrows,
That you see...is me.
Perilously parched and crying,
They say I am dying.
Does it send down a shiver?
I was once a river !

The cool waters flowed calmly,
Beneath the mighty bridge,
Between its steely secure arms,
The train above rumbled,
The metal shuddered,
And I did quiver.
I was once a river !

I danced and swirled,my merry world.
Your peals of laughter,
Matching the trains whistle,
Chubby sooty faces,
Peering from the window.
I could'nt be livelier.
I was once a river !

The train has crossed,
And so have you,
Left behind is stinky residue.
The slime slowly smothering ,
The garbage pile building ,
Shrinking me to a sliver.
I was once a river!

Shabby concrete warts,
Sprung haphazardly,
Growing stealthily like cancer,
I am gasping,you are pained.
The train chugs sadly.
Bidding goodbye forever.
I was once a river!






पाती

 आपबीती को लघुकथा का शक्ल दे दिया है मैंने।

पाती

आंगन का कोना । कोने में अलमारी। लकड़ी को दीमक चाट गए थे। लोहे को जंग खा गई थी।एक दो दराज़ अपना दम साधे किसी तरह  अटके थे। दराज़ में बिछा था कागज़।कागज़ जिस भी रंग का होगा, धूल ने उसकी पहचान मिटा दी थी।कबाड़ी वाला भी मुंडी डुला कर चला गया था। अब तो अग्नि दाह ही बचा था। सर्दी में किसी गरीब का भला हो जाएगा।

मालूम नहीं क्यों, दराज़ के सौ सुराखों वाला कागज़ को उठा कर देखा। बांछें खिल गईं !समय के पीलिया से ग्रसित, हल्का नीला कागज़ और उसपर धुंधली होती स्याही पर एक चिर परिचित लिखावट।लिखावट मेरी माँ की...उनकी पहचान।मुझसे बातें करते हुए सुंदर, सुडौल अक्षर।अक्षर को जोड़ के  शब्द, शब्दों को पिरो कर वाक्य, और वाक्यों को सजाते हुए पैराग्राफ।कहीं कोई कटौती नहीं। उनके व्यक्तित्व का बिम्ब। उनके भाव का दर्पण।चिट्ठी क्या थी, अंतर्देशीय पत्र  के तीन पन्नो में उनकी पूरी दुनिया सिमटी हुई थी!हल्की फुल्की गपशप , गंभीर बातें ,कुछ दबी सी फिक्र , लुटाया हुआ लाड़ ,सब शब्दों में लिपटे हुए थे ।मेरी तरल आंखों के सामने पूरा दृश्य घूम गया। कुछ सुगंध भी हवा में फैल गयी, शायद ये मेरे मन का भ्रम था।
पाती को छाती से लगाया, तो समय का वो टुकड़ा मेरे पास था जब किसी कीबोर्ड के डिलीट बटन में कोई ज़ोर नहीं था !



साल

 Best wishes on New Year to one and all.

I always leave my hometown Patna with mixed feelings, some of hope, some of despair.What has remained consistent is the warmth of the people there.

I was visiting Patna recently ,at a time when frenetic activities and canvassing for the local municipal corporation elections were underway.

The sights and sounds have crystallised in this hastily written poem.

साल

क्यों इतना शोर?क्यों इतना बवाल?
वो गया साल! ये नया साल!

ना कुछ बदला,ना कुछ सुधरा,
बस वही भेड़ की भेड़चाल।

बंटी चुनाव से पूर्व हलवा पूड़ी,
बाकी दिन रहे तरसते रोटी दाल।

नेता रथ पर घूमता गाजे बाजे संग,
नंगे पैर  दौड़ता गुदड़ी का लाल।

संकरी सड़कों पर दौड़ती  जहाजनुमा गाड़ियां,
कौवा चला हंस की चाल।

बन रहे पुल और नहरें आज कागज़ पे,
सरकारी कोष ठन ठन गोपाल!

बाकी बचे की नोच खसोट में,
लगे हुए "सफेदपोश "और दलाल।

चंद चमचमाती इमारतों ने ढका,
पीछे पड़े कचरे,मलबे का टाल।

नर्सिंग होंम और क्लिनिक में होड़ लगी है,
बिलखते मरीज़ और चरमराते अस्पताल।

ज़ेवर ज़ेवरात की दमकती दुकानें,
पीला हुआ सब काला माल।


मत करो शोर,मत करो बवाल,
बस आस अवश्य मन में ये पाल,
वो गया साल, ये नया साल !


मत करो शोर,मत करो बवाल,
बस आस अवश्य मन में ये पाल,
वो गया साल, ये नया साल !

अतिथि

What could she be asking for in her prayer ?

 

This picture with the caption, was posted today in one of my Whatsapp group. I found it poignant, and  it set off a train of thoughts.There was a lot she could have asked for, but she chose to tell instead !


चमकती धूप में,
कभी पत्थर तोड़ती हूँ,
कभी ईटें ढोती हूँ।
छूटा गांव,
लड़खड़ाते पांव
सूख के हो गए लकड़ी,
और हाड़ को जकड़ी चमड़ी।
जहाँ ज़रा पकड़ छूटी,
तो चरमरा कर झुर्रियों
का ढेर बन गई।
हाथों के छालों की गढ़ाई,
डिज़ाईनर मेंहदी भी शर्मायी।
शरीर पर पड़ी गाठें,
और चिपक के एक हो गईं आंतें।
मेरी नींद है इतनी गाढ़ी,
कि सपनों का आना भी भारी।
तपता ,सिलता ,मेरा बिस्तर,
ओढ़ना मेरा विस्तृत अम्बर।

मालिक से नज़रें बचा कर,
कुछ डरे और कुछ सकुचा कर,
धरती का एक छोटा टुकड़ा,
मैं चुरा ले आयी हूँ।
रिक्शा वाले पड़ोसी से,
कुछ आसमान मांग लायी हूँ।
तुम्हारा आना जो तय है,
मेरे मन में भी भय है,
अतिथि हो, तुम कुछ दिन मेरे,
कष्ट तुम्हें न कोई घेरे,
काम बहुत ही आम किया है,
भगवन!
मैंने तुम्हारा इंतेज़ाम किया है!!





Amrita Pritam -Recitation of Main Tainu Phir Milangi


https://drive.google.com/file/d/1yJxKGxNONB46REfLBFuLUZAxuM14ERGt/view?usp=sharing 

Link of my recitation.👆

It is Amrita Pritam's birthday anniversary today (Aug 31st).
She is one of my favourite poets. As an honour to her memory, am reciting one of her poems.
She wrote this poem for Imroz in the evening of her life, when she was ailing.  Imroz was much younger to her, and a painter .She met him much later in life but shared a lasting relationship with him.
The original poem is in Punjabi, which is easy to follow, but still providing the Hindi translation.
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ ,कैसे, पता नहीं
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे कैनवास पर उतरुँगी
या तेरे कैनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं


या सूरज की लौ बन कर
तेरे रंगों में घुलती रहूँगी
या रंगों की बाँहों में बैठ कर
तेरे कैनवास पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रूर मिलूँगी

या फिर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूँगी
और एक शीतल अहसास बन कर
तेरे सीने से लगूँगी

मैं और तो कुछ नहीं जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जो भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म ख़त्म होता है
तो सब कुछ ख़त्म हो जाता है

पर यादों के धागे
कायनात के लम्हें की तरह होते हैं
मैं उन लम्हों को चुनूँगी
उन धागों को समेट लूंगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं

मैं तुझे फिर मिलूँगी!!

Roots

 A poem dedicated to students ...classmates, seniors, juniors...from my alma mater, Patna Science College. Some, I have known from my college days and are best of my friends and some  I came to know recently but it feels that I have always known them.

They keep my roots alive.



Joss sticks with  dim embers,
Their ether softly wafting.
Rhythmic rubbing of sandalwood ,
Their essence slowly lofting.

Red roses  with bruised petals,
Their scent making one giddy.
Basketful of star jasmines,
Nothing short of heady.

Aromas escaping the kitchen,
Pungent mustard flaring nostrils afar.
Spices assaulting the senses,
From tangy pickle's open jar.

Caramel and golden grain ,
Their union just heavenly.
Sweetness hovering above,
As they sizzle gingerly.

The memorised morning mantras,
Booming notes of  conch shells.
The evening chant with lighted lamps,
The delicate ringing of brass bells.

Scarlet hibiscus kiss the feet,
Bright vermllion in parted hair,
Unmistakable tinkle of glass bangles,
Six yards worn with easy flair.

All gush back to me like a blast.
The smell, sights and sounds,
A vibrant kaleidoscope from the past,
As I come across a bunch of unknown,
But oh! so familiar faces!!












गुफ्तगू....ज़िंदगी से

 कुछ खास नहीं, बस आम सी बातें,आम से जीवन की, जो मन से फिसल कर निकली हैं...


सरपट दौड़ती ज़िंदगी के,
छालों भरे पांव से लिपट गयी मैं,
रुको !दो घड़ी,
कुछ सांस ले लें,
हम भी, तुम भी,
कुछ गुफ्तगू कर लें,
हम भी,तुम भी
आगे भी क्या बेदम दौड़ना है?
या फिर समय की गति को तोड़ना है?
हांकती गयी तुम,
और मैं भी दौड़ी बदहवास,
सोचा कम और भागी ज़्यादा,
कभी  ठिठकी, तो ठेल दिया,
कभी मुड़ी, तो धकेल दिया,
कभी दोराहों पर भटकाया,
कभी पतली गली में पटकाया,
कभी मकां छुटा, कभी साथी,
कभी दीया गिरा ,कभी सरकी बाती,
भीड़ बहुत थी,
क्या दूल्हा!  क्या बाराती!
मुखौटे सभी सजे हुए,
खिलाड़ी सारे मंजे हुए,
मुस्कान थी ,या नश्तर की धार?
नृत्य या धोबी पछाड़?
अजीब अंदाज़ था टोकने का,
हरी झंडी की आड़ में रोकने का,
भलाई और भरोसा कब का राह छोड़ गए,
सच्चाई और शर्म कब का मुँह मोड़ गए,
अब सांझ के झुटपुटे में थोड़ी रोशनी उधार लें,
अपनी झुर्रियों के साये में बैठ पांव पसार लें,
गिले शिकवे सब बिसार लें,
मेरी आंखों में मोती,
तुम्हारे बालों में चांदी,
अपनी अमीरी के साथ ,
आहिस्ता चलते हैं!
हम भी ,तुम भी,
हाथों में हाथ डाले,
जब तक हाथ छूट न जाये!!






















The little girl

 As a break from the routine, I had partcipated in a cultural program held on the occasion of International Nurses Day.

One of my juniors, made a small video while we were getting ready for the function. I had posted that video ,to which someone had remarked "do you have daughter who looks like you".
Of course, that statement was made in jest but there was an element of truth in it !☺️


She loves to watch the stars,
As they twinkle on dark nights,
And hear the waves crash,
As the silver orb shines bright. 

She loves to chase the butterfly,
Which flits from flower to flower,
And feel their gossamer wings,
In the early morning hour. 

She loves to taste the raindrops,
Cascading off her hair,
And float regal paperboats,
In waterlogged thoroughfare. 

She loves to borrow from the canary,
And spread some sunshine,
The crimson and the claret,
She steals from summer wine. 

She loves the caress of grass,
While bouncing in her bare feet,
And watch the rainbow dance,
On dewdrops, in their leafy seat. 

She loves the strain of music,
Floating in the air,
Of some longlost song,
With friends she would share. 

She loves her orange tongue,
Which she sticks out at the mirror,
The taste of ice popsicle,
Fresh and tingling, it lingers. 

She loves to pirouette and twirl,
The beats never tire ,
The wind blows her tresses,
Keeping adrift all desires. 

She remains frozen in time,
Pristine and free,
Chaos and churning, keep distance!
The little girl lives in me !!




शब्द


कुछ मित्रों की फरमाइश थी ,कि मैं हिंदी में भी कुछ लिखूं।
तो ये कोई कविता नहीं, बल्कि एक कोशिश...आपबीती कह लीजिए !☺️
लेखन के क्षेत्र  में नए होने की वजह से जो अनुभव किया है या जो और रुकावटें आई हैं, बस उन्ही को बयां कर रही हूँ।


मैं जब अकेली होती हूँ,
मन के किसी कोने से निकल आते हैं,
दबे पांव...शब्द!
कुछ छोटे,कुछ बड़े,
कुछ सीधे, कुछ पड़े,
कुछ नए,कुछ पुराने,
कुछ जाने,कुछ अनजाने,
कुछ शराफत से पंक्ति में बैठ जाते हैं,
कुछ शरारत से इधर उधर भागते हैं,
पकड़ती हूँ,पर फिसल जाते हैं,
कुछ मुँह चिढ़ा कर निकल जाते हैं,
ढूढ़ती हूँ ,पुचकारती हूँ,
कभी उनके पर्याय से काम चलाती हूँ,
कुछ इतराते हैं खास जगह बनाने को,
मचलते हैं पन्नों पर सजाने को,
कभी फूलों की रंगत पाने को,
कभी पक्षी बन चहचहाने को,
कभी अक्षर अक्षर बिखरे रहते,
अटपटे से पसरे रहते,
कभी आपस में गलबहियां डाल,
गीत बन के निखरे रहते,
कभी भावनाओं से बुहारती हूँ,
कभी आंसूओं से पखारती हूँ,
कभी इतना कोलाहल करते हैं,
कि चुप कराना मुश्किल,
कभी ऐसे चुप,
कि बोलवाना मुश्किल।
ये मेरे दोस्त हैं, मेरे हमनवा,
जो आते हैं, कहीं मन के कोने से,
जब मैं अकेली होती हूँ।

The tree and I

The charade is played out every World Environment Day (June 5th),in countless organisations. A photo op, with senior officials holding a wilted sapling ,putting some soil sparingly and finally drenching it with newly bought shiny plastic watercan. The sapling doesn't survive beyond a week.

Another snapshot is that of the hundreds of trees uprooted after a fierce storm recently.
That torments me.




A humble request...plant a tree ,any tree, this season and look after it.

The Tree and I

The slender stem stood confident,
My steps were shaky and diffident,
I wobbled to stay upright,
Though we were of same height.
The tree and I.

Branches arranged in orderly whorls,
I pranced with a mop of curls,
Delicate leaves in perfect symmetry,
My chubby hands touched with glee.
The tree grew a bit.

Summers passed ,and time flew,
Boughs got denser before I knew,
My red shoes changed to black,
Heavy books filled my shoulder sack.
The tree grew taller.

Parrots, mynahs ,and cuckoo,
Their chorus rang all day through,
Yellow florets mesmerized me,
Inviting hordes of buzzing bees.
The tree grew sturdier.

Sun filtered through verdant lattice,
Grass beneath grew in patches,
Back to the trunk, and book in hand,
I sailed into utopian land.
The tree flourished.

Then, wise men armed with skills,
Came to put away dust and ills,
They built around, a concrete noose,
Biting, stifling, not at all loose.
The tree was stunned.

Leaf by leaf the pain dripped ,
Baring brown and foliage stripped,
My suitcases packed, I went away,
To join ,what life held in fray.
The tree wept.

Naked, but valiant it stood guard,
Its arm stretching heavenward,
Braving storms and squalls,
One night ,it took a fall.
The tree died.

Some silver has sneaked into my hair,
I look out of the window in despair,
The luxuriant green I so adored,
My majestic tree is no more.
I grieve, I mourn.